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इक घर बनाना चाहंता हूँ

LAKSHYA
LAKSHYA
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धैर्य की बुनियाद पर इक घर बनाना चाहंता हूँ l
इस नए तूफान को मैं आजमाना चाहंता हूँ ll

जब से हमने जिन्दगी के सार को जाना यहाँ,
मुस्कराने के लिए मैं इक बहाना चाहंता हूँ l

जो घने कोलाहलों से दे सके मन को सुकूँ,
गुनगुनाने के लिए बस इक तराना चाहंता हूँ l

दर्द के पर्वत खड़े हैं जो पिघलते ही नही,
मैं किसी भी हाल में इनको गलाना चाहंता l

अब जिहें सूती बिछोने रास हैं आते नही,
मैं अतीतों का उहें दर्पण दिखाना चाहंता हूँ l

खो गयी इंसानियत जाने कहां इस दोर मैं,
वक्त की रफ्तार से खुद को बचाना चाहंता हूँ I

जो सदा बटते रहें हैं नफरतों की रस्सियाँ,
मैं उन्हें भी प्यार का झुला झुलाना चाहंता हूँ I

वक्त के आगोस मैं गुमशुम पड़ी है जिन्दगी,
मोत की बाँहों अब मैं खिलखिलाना चाहंता हूँ I

मैं हूँ “राही” सिर्फ चलना ही मेरा मकसद नही,
हर कदम को मील का पत्थर बनाना चाहंता हूँ I

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